**इंसान और ब्रह्माण्ड**
.
.
ये इंसान भी न,
है कुछ इस चाँद सा
जो देख रहा हूँ मैं अभी।
या कुछ उस आफ़ताब सा
जो आजकल नदारद है
आसमान से
या उन सितारों सा जो
ओढ़ लेते हैं रातों में अब
शर्म की चादर।
आप कहेंगे कि
इसमें नया क्या है?
कितनी ही बार न जाने
कितनों ने
कितने ही तरीकों से
अपनी प्रेयसी को चाँद
कहा ही होगा, कभी ना कभी कोई किसी के लिए उनका आफ़ताब भी बना ही होगा और सितारों से तो हमारा पुराना ही वास्ता है कुछ
पर मैं उनके मायने में
बात नहीं कर रहा।
है तो मेरी महबूबा भी चाँद ही
पर क्यों हमने चाँद को
परिभाषित कर रखा है।
हम नहीं देखते उसकी पारदर्शिता
कि चाँद कभी कुछ छिपाता नहीं,
ना अपना तेज़,
ना अपने दाग।
कुछ इंसान ऐसे ही होते है,
जैसे है वैसे सबके सामने,
अपने घाव साथ लेकर चलने वाले,
अपना दर्द सामने रखने वाले,
एक चाँद की तरह
हमेशा मुस्कराते रहते हैं
पर क्या दिखती है हमें उनकी
असली परेशानी जैसे
दिखती नहीं चाँद की|
कुछ इंसान होते है उस आफ़ताब जैसे भी,
जलते रहते है हमेशा,
तपन से, गुस्से से, दर्द से
और उनका दर्द दिख भी जाता है हमें,
उनका तेज़ भी, पर बहुत देर तक
जैसे सूरज को नहीं देख सकते
ठीक वैसे ही नहीं रह सकते
उस इंसान के साथ जो सूरज है,
क्योंकि डर होता है उसे भी
कि कहीं जल ना जाओ तुम भी,
उसकी तपन में और उसे खुद जलना मंज़ूर है
पर दूसरों को जलाना नहीं।
वो जलता रहता है दिन से लेकर रात तक,
तरह-तरह से ,
पर रोशनी भी तो वही करता है
ज़िन्दगी में दूसरों की और सोचो
बिना आफ़ताब के क्या दिन का कोई
मायना भी है?
फिर आते है वो आदमज़ाद जो
है तारे भी अर्श के,
बस टिमटिमाते हैं,
बुदबुदाते हैं कुछ अकेले में ही,
जलते हैं, पर ना उनकी तपन का अहसास होता है
ना जलन का ठीक वैसे जैसे
एक इंसान मुस्कराता रहता है पूरे दिन
और हम बता नहीं पाते
कि कितना टूटा है वो अंदर से,
कि कितनी जलन है उसके अंदर,
कि कितना ही कुछ होगा कहने को,
पर बस सुनता रहता है,
लोगो की ख़्वाहिशें
लोगो की फ़रमाइशें,
लोगो की आदतें
और किस्से।
और इस तरह ये अनेकों
आफ़ताबों , मेहताबों और सितारों से भरा संसार
है चारों तरफ हमारे
और शायद इसलिए ही इंसान
को इस ब्रह्माण्ड का हिस्सा कहा गया है
जबकि असलियत में
ब्रह्माण्ड स्वयं ही हिस्सा है महज़
इस इंसान का।
~
शिवम गुप्ता©